बूढे बरगद को देखो
उसकी करुण कथा में
लिखा हैं -
सदियाँ का इतिहास ,
वेगवती धारा में
नदियों का संन्यास ,
हर पृष्ट पर छपा -
शाकुंतलम का परिहास ,
शम्भुक वध की आड़ में
व्यवस्था का जंगल,
वेदों में संपूज्य
अभागा विश्वास,
त्रासदी, कुंठा, घुटन , संत्रास
और -
भोगे क्षण का यथार्थ,
दीवारों पर टूटे पलस्तर में
परत- दर- परतो में
कुत्सित नपुंसक श्रद्धा !
छाया - मंदिर में महकती
तुलसी का मानस
प्रतिदिन प्रतिक्षण
स्वप्निल स्म्रतियों की
कितनी सीताओं का होता
परित्याग !
शासित और शासक से
सत्ता की चक्राकार
अवस्थिति में -
उगती नागफनी
राजनीति की तलवारों से
रोंदा गया सविंधान
जहर उगलते व्यालों की
काली छाया में -
विष फेनिल यंत्रणाऐ !
खुनी भेजिए !
नर संसार !
उत्पीडित स्तब्ध
मानसिकता !
शापित पीढी का खंडित
विश्वास !
तनहाइयों के मरुथल में
झुलसता मधुमास !
शायद -
अतृप्त उद्दाम वासनाओ में
लिखा जायेगा -
मुक्तिकामी अर्धचेतना में
विरोधाभासो का -
कोई इतिहास !
महज प्रतिशोध से भरी
कौरवी सदी, |
मत्स्यगंधा - सम - शापित
घ्रणित अहसास ,
चिर हरण करता हुआ
दु:शासन फिर -
राष्ट्रपथ में करेगा
सरेबाजार द्रोपदी का अपमान
और
यातनाओ को सेहती हुई
फिर- फिर
नीलाम होती हुई
द्रोपदी लुटाती रहेगी
अपनी अस्मता
इस बौने भटके समाज में
बार- बार !
उत्संगो के क्रम में -
खेली गयी
आज फिर संसद में -
ख़ूनी होली,
कोलकाता के भरे बाजार में
होता हैं -
राष्ट्रीय अस्मिता का खून
विलायती राष्ट्र के-
समझौते में -
प्रजातंत्री अनाचार !
जिन्दगी के हर मोर्चे पर
शतरंजी बाजीगरी खेल में
होता हैं -
खून यहाँ बामपंथी
नागार्जुन का !
बंगाल की खाड़ी में
उठा हैं वह तूफ़ान
आतंकी खेल में
इंसानियत का खून !
उठो -
मत बेचो अपनी अस्मिता
भेज दो तुम -
करबला में युद्ध का पैगाम !
मत बनो बौने -
बाजरे की छरहरी कलंगी में
जूही की कली तक आज -
बिकने को लाचार ,
अभिशाप लेखनी में
राजनीती हें उद्भ्रांत !
ओ कलमकार !
बोद्धिक वर्ग के क्रीत दास
देखो तुम -
ख़ूनी आँखों से
लुटती अस्मिता को !
क्रूर खलनायक के |
हर मंजर को
बैठे हैं जो संसद में
दहशत के सूर्यग्रहण बन !
रोज बनते हे
राहु - केतु ये-
इन्द्रसनों में लिपटे तक्षक
डंसते हे दंश के जहर से
मानवता को!
आज कोई कर्ण नहीं,
कवच नहीं ,
कुंडल नहीं
सुनो पौरूष के धनी
कलम के रथी !
तुम्हे -
बन यज्ञकुंड का होता
तक्षकों को सम्पूर्ण
शक्तिमता से
परीब्राज्या बन
करना होगा समाप्त
उनके फुफ्कारों और-
दंशन की पीड़ा को
करना होगा शांत
यज्ञबेदी में !
धुंधकार सुलगती
लाश में -
निस्सीमता का बन अहम्
दुल्र्ध्य सिन्धु को
पीना होगा -
आतंक की प्रचंड सामर्थ से!
मिथ्यादंभ को मथकर
देना होगा -
विखंडित गर्जन !
विराट शक्ति बनकर
महाप्रलय के उठे तूफ़ान को
बूढ़े बरगद की छाया में
नदी की वेगवती धारा में
वेदवाणी से केर अभिसिंचित
सदपुरुष की विराट शक्ति से
दुस्सह आवेग की-
अप्रतिहत गति से
देनी होगी अक्षत सुरक्षा !
तक्षक को शरण देकर नहीं
सत्ता के पराशक्ति पत्र को -
कुहा के तिमिर स्थान पर
देना होगा -
श्रत्विक , ब्रह्ममय, उर्जस्वित
हवन का उज्जवल प्रकाश
वैदिक मंत्रमयी आभा से -
आलोकित दिव्य प्रकाश! |