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कविता - 08

 

 

उद्जन बम
उद्जन बम !
हे उद्जन
तुम निंसंदेह हारे हुए
पथिक की विश्रान्ति हो !
हम सब खोखले इंसान हेँ !
शरीर में भूसा भरकर
एक पंक्तिबद्द जनशून्यता में
मानवताहीन प्रश्नचिन्ह बन
खोपड़ियों में भूसा भरे हुए
अस्मिता को तोड़ने वाले
उस क्लांति का तुम -
युंशबोध हो !
जब हमारे सवांदो में
टूटी आस्थाएँ डगमगाती हेँ,
स्थिर और अर्थहीन होती हुई
सूखी घास में चरमराती हवा ,
शराब के प्यालों में टकराती हुई
सूखे तहखानों में टूटे काँचों से
बिखरकर,
फर्श पर चकनाचूर होती हेँ
तब तुम उस अर्थहीन संसार को
देते हो-
युगबोध ! परिवर्तन का युगबोध !
आकार नहीं, आकृतियों में नहीं,
रंग बोध नहीं, भावबोध में नहीं,
विकलांग मानवता क हाव-भाव में
जिसमे गति नही , स्पंदन नहीं,
मौत की देहरी लाँघकर
म्रत्प्राय: इस समूचे जगत की
विनष्ट तेजवान आत्मा की भाँती
खोखले इंसानों के रूप में
इंसानियत का गला घोंटे हुए
उदासी की झील में भटकाव का तोड़
तुम विश्रांति के महासागर में
दे जाते हो पूर्ण युगबोध !
कैक्टस की गंधहीन , रंगहीन
पुष्प की तरह इस रंगमंच पर
हर पात्र यहाँ का मुर्दा हेँ
हर अस्मिता यहाँ खोखली हैं,
हर आस्था यहाँ खण्डित हैं !
मुर्दों के इस रंगमंच पर
पत्थर की प्रतिमाओं में
इंसानियत नहीं,
आदमखोर पाले जाते हैं
और -
धुंधलाते सितारों में
मुर्दा इंसानियत
बहशी आदमखोर की
उतारती हैं आरती !
हे उद्जन बम !
युगबोध को सत्य रूप देने
तुम !
विश्रांति दो इस युग के
पराजित स्वत्व को !
धमाके के साथ नहीं ,
चिंचीयाते हुए करो
इस खुनी मानवता का अंत !
हैवानियत की रक्तं - गंध से सनी
इस दुनिया का अंत !
हे उद्जन बम !
तुम ही पथिक कि
अंतहीन पथ कि विश्रांति का
हारा हुआ अंत हो !

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