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कविता - 09

 

 

दीवारों की मूक - व्यथा
दीवारों की पर्त पर
पड़े हुए,
ये पलस्तर-
कहते हुए
आंकते हुए
दीवारों की मूक व्यथा को,
जो शायद
उन्हें,
समाज के ठेकेदारों से
मिली !
उनके ह्रदय पर
पड़े हुए ये घाव
रिस- रिस कर
जीने को
विवश कर देते हें
उन्हें !
दीवारों पर पड़े हुए
ये पलस्तर,
हादसों के आगोश में,
शायद
टूट-टूटकर
खंडित हो,
पराभूत हो,
स्वयं ही धवस्त हो
मूक व्यथा को
सहने में विवश
आज गिरने को मजबूर हें !
कोंन समझेगा ?
दीवारों के पलस्तर की
मूक व्यथा को !
दर्द से तड़पते हुए ,
ह्रदय की टूटी धड़कन लिए ,
शायद गिरा दिए जायेंगे ?
समाज के इन
ठेकेदारों द्वारा
ये पलस्तर और
भग्नाषा की पीड़ा में
जीते हुए,
टूट जायेंगे ,
परत -दर- परत
जमीं में विलुप्त होने के लिए
भग्नाशा से पीड़ित
अतृप्त त्रष्णा लिये
ये पलस्तर !

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